कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe इस पोस्ट के मध्यम से हम आप सभी तक महात्मा संत कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित पहुचाने का प्रयास कर रहे हैं। Kabir Das ji ke dohe जो भक्ति और मानवता को प्रेरित करने वाले हैं, संत Kabir ji Ke Dohe हम सभी का समय समय पर मार्गदर्शन भी करते रहे हैं। kabir ji ke dohe
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ji Ke Dohe
Kabir Das Ji Ke Dohe
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कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
अर्थ: हमेशा ऐसे वचन बोलने चाहिए, जिससे मन का क्रोध शांत हो और सभी को ठंडक पहुंचाये, और खुद का मन भी शीतल हो जाये ।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है उस एक छोटे से तिनके का भी कभी अपमान नही करना चाहिये न करो यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं बहुत सी किताबें पढ़ा सुना गुन सीखा लेकिन फिर भी मन में जो संदेह का काँटा चुभा था वो न निकला यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संदेह न मिटा सके?
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं प्रेम को न तो खेत में उगाया जाता है, न तो प्रेम किसी बाजार में बिकता है। प्रेम को राजा हो या प्रजा कोई अपनी इच्छा अनुसार खरीद और बेच नही सकता।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि दूसरों के दुःख -तकलीफ को समझने वाला ही सच्चा पीर है, जो दूसरों के पिड़ा को समझ नही सकता वह पीर या संत नही हो सकता वह तो काफ़िर है।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आखिरी समय यानी दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी भी जलती है, आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है और समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही हो तो पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं बगुला देखने में सफेद होता है, लेकिन उसका मन काला होता है। उससे तो कौवा अच्छा है जो दिखता भी काला और उसका मन भी काला दोनों एक ही रंग के होते हैं।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥
अर्थ: एक पतिव्रता स्त्री कितनी भी गंदी दिखे गरीब हो चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो. फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है !
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
अर्थ: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है. ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
अर्थ: साधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता !
कबीर के दोहे - Kabir Das Ke Dohe
आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
अर्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
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